खाहिश



एक मुलाक़ात की खाहिश, फ़िर जग रही है
तमन्ना देखने की उन्हें, फ़िर से उठ रही है।

गहरा है समन्दर दरमियाँ तेरे मेरे,
पर डूबने की चाहत, फ़िर से उमड़ रही है।

लूटेंगे शौक से वो, मेरे इश्क़ का तमाशा,
लुटने की मेरी खाहिश, फ़िर से उठ रही है।

अल्फाज़

Comments